घरों में सब्ज़ा छतों पर गुल-ए-सहाब लिए हवाएँ फैल गईं नक़्श-ओ-रंग-ए-आब लिए शब-ए-सियाह ढली सुब्ह आश्कार हुई जबीं पे ज़ख़्म लिए हाथ में गुलाब लिए मैं एक ढलता सा साया ज़मीं के क़दमों में तू ढूँडने मुझे निकला है आफ़्ताब लिए गुज़र गया कोई पहचानता हुआ मुझ को पुरानी यादों की शमएँ पस-ए-नक़ाब लिए बिखर के जाता कहाँ तक कि मैं तो ख़ुशबू था हवा चली थी मुझे अपने हम-रिकाब लिए उभर रहे हैं कई हाथ शब के पर्दे से कोई सितारा लिए कोई माहताब लिए हवाएँ फिरती हैं रस्तों में बाल खोले हुए ये रात सर पे खड़ी है कोई अज़ाब लिए अजब नहीं कहीं ताबीर कोई मिल जाए भटक रहा हूँ गिरह में हुजूम-ए-ख़्वाब लिए