घटाएँ रक़्स करती हैं ये मौसम रक़्स करते हैं वो ज़ुल्फ़ों को जब अपनी कर के पुर-नम रक़्स करते हैं बड़ी मस्ती बड़ी गहराई है उन शोख़ आँखों में उन्हीं में मस्त हो कर दोनों आलम रक़्स करते हैं हवाएँ आने लगती हैं कभी जब उन के दामन की दिए भी कर के अपनी लौ को मद्धम रक़्स करते हैं तुम्हारे हिज्र की रातों में जब तन्हाई डसती है बजा कर अपनी हम साँसों की सरगम रक़्स करते हैं बहारों झूमने लगती हैं उन का नाम सुनते ही सजा लेते हैं गुल होंटों पे शबनम रक़्स करते हैं मियाँ हम तो क़लंदर हैं हमारा हाल मत पूछो हमारे सीने में कितने ही संगम रक़्स करते हैं कभी जब मिल के आते हैं कहीं तन्हाई में उन से दरीचे बंद कर लेते हैं और हम रक़्स करते हैं हज़ारों बिजलियाँ सदक़े में उन के टूट जाती हैं पहन के नूर की पायल जो हमदम रक़्स करते हैं 'नदीम' अपनी अदा ऐसी है जिस के सामने आ कर ख़ुशी मदहोश हो जाती है और ग़म रक़्स करते हैं