निसार-ए-शमअ' होने बज़्म में परवाना आ पहुँचा क़रीब-ए-मंज़िल-ए-दीवानगी दीवाना आ पहुँचा तराने हम्द के गुलशन में बर्ग-ए-गुल से सुनता हूँ ज़बान-ए-ग़ुन्चा पे क्यूँकर तिरा अफ़्साना आ पहुँचा इसे कहते हैं मिल कर ख़ाक में इक्सीर हो जाना हुआ सरसब्ज़ वो ज़ेर-ए-ज़मीं जो दाना आ पहुँचा सफ़र इस बज़्म से करने को फिर रजअ'त की ठानी है गले फिर आज मिलने शम्अ' से परवाना आ पहुँचा रक़म है दास्तान-ए-इश्क़-ए-बुलबुल पत्ते पत्ते पर गुलों तक किस तरह गुलशन में ये अफ़्साना आ पहुँचा खिंची थी क्या तिरी तस्वीर तरकीब-अनासिर से कि मुश्त-ए-ख़ाक में अंदाज़-ए-माशूक़ाना आ पहुँचा परस्तार-ए-सनम हो कर जो ढूँडी राह का'बा की क़दम बहका हुआ अपना सर-ए-मय-ख़ाना आ पहुँचा बनेंगे आज फिर सरमस्त सहबा-ए-सुख़न 'रौनक़' क़दम फिर अपना क़ुर्ब-ए-महफ़िल-ए-रिंदाना आ पहुँचा