घिर के घबराते न थे हिज्र के आज़ारों में जब कि ताक़त थी कभी आप के बीमारों में ले के हम दिल गए कहते ये जफ़ा-कारों में कौन लेता है इसे इतने ख़रीदारों में दी रिहाई मुझे सय्याद ने ऐ वाए नसीब दख़्ल जब फ़स्ल-ए-ख़िज़ाँ का हुआ गुलज़ारों में मेरे मरने का हुआ रंज हर इक क़ैदी को कि है कोहराम बपा तेरे गिरफ़्तारों में दस्त-ए-नाज़ुक से मुझे जाम दिया साक़ी ने आबरू बढ़ गई और आज से मय-ख़्वारों में आतिश-ए-हिज्र से क्या डर जो तिरी मर्ज़ी से रात कर देंगे बसर लोट के अँगारों में फेंक देना न कहीं भूल के हंगाम-ए-सहर दिल भी लिपटा है इन्हीं सूखे हुए हारों में नाला-ए-बुलबुल-ए-शैदा न जिसे फाँद सके ये बुलंदी तो नहीं बाग़ की दीवारों में निकला वो तीर-ए-निगह भी तो ये कह कर निकला मेरा दामन न उलझ जाए कहीं ख़ारों में यूँ सुनाई गई है उस को ख़बर 'आलिम' की मर गया कोई तिरे ताज़ा गिरफ़्तारों में