ग़ुबार-ए-मासियत की इस तरह की शुस्त-ओ-शू बरसों मय-ए-साक़ी से ऐ ज़ाहिद किया मैं ने वुज़ू बरसों ज़बान-ए-बे-ज़बानी हम से बढ़ कर कौन समझेगा तिरी तस्वीर से फ़ुर्क़त में की है गुफ़्तुगू बरसों न प्यास अपनी बुझेगी बादा-ए-कौसर से जन्नत में रहेगी रूह मेरी कुश्ता-ए-जाम-ओ-सुबू बरसों