गिर पड़े दाँत हुए मू-ए-सर ऐ यार सफ़ेद क्यूँ न हो ख़ौफ़-ए-अजल से ये सियहकार सफ़ेद दो क़दम फ़र्त-ए-नज़ाकत से नहीं चल सकता रंग हो जाता है उस का दम-ए-रफ़्तार सफ़ेद उस मसीहा की जो आँखें हुईं गुलज़ार में सुर्ख़ हो गई ख़ौफ़ से बस नर्गिस-ए-बीमार सफ़ेद गुल-ए-नसरीं को नहीं जोश चमन में बुलबुल है नज़ाकत के सबब चेहरा-ए-गुलज़ार सफ़ेद घर मिरे शब को जो वो रश्क-ए-क़मर आ निकला हो गए परतव-ए-रुख़ से दर ओ दीवार सफ़ेद लब ओ दंदाँ के तसव्वुर में जो रोया मैं कभी अश्क दो-चार बहे सुर्ख़ तो दो-चार सफ़ेद हुई सरसब्ज़ जो सोहबत में 'अमानत' की ग़ज़ल रंग दुश्मन का हुआ रश्क से इक बार सफ़ेद