गिराँ गुज़रने लगा दौर-ए-इंतिज़ार मुझे ज़रा थपक के सुला दे ख़याल-ए-यार मुझे न आया ग़म भी मोहब्बत में साज़गार मुझे वो ख़ुद तड़प गए देखा जो बे-क़रार मुझे निगाह-ए-शर्मगीं चुपके से ले उड़ी मुझ को पुकारता ही रहा कोई बार बार मुझे निगाह-ए-मस्त ये मेयार-ए-बे-ख़ुदी क्या है ज़माने वाले समझते हैं होशियार मुझे बजा है तर्क-ए-तअल्लुक़ का मशवरा लेकिन न इख़्तियार उन्हें है न इख़्तियार मुझे बहार और ब-क़ैद-ए-ख़िज़ाँ है नंग मुझे अगर मिले तो मिले मुस्तक़िल बहार मुझे