गिरानी-ज़दा ख़ाक मेरी बड़ी है जहाँ पर पड़ी थी वहीं पर अड़ी है अगर हूँ मैं ज़िंदा तो मिट्टी से मेरी जो मर जाऊँ तो लाश इसी में गड़ी है इसे इस क़दर क्यों सँभाले रखा है ये मिट्टी की हाँडी तो ख़ाली पड़ी है बहुत देर से आइना है बुलाता ख़ुदी से तक़ाबुल की आई घड़ी है मुझे डर नहीं राहों की पेच-ओ-ख़म का हर इक मोड़ पर मेरी क़िस्मत खड़ी है तू ख़य्यात की यूँ मलामत न करना क़बा की सियाही सितारों जड़ी है कभी थाम ले और कभी तू बढ़ा दे 'नवा' यूँ ही हाथों की जुड़ती कड़ी है