गिर्दाब-ए-रेग-ए-जान से मौज-ए-सराब तक ज़िंदा है तो लहू में बस इक इज़्तिराब तक इक मैं कि एक ग़म का तक़ाज़ा न कर सका इक वो कि उस ने माँग लिए अपने ख़्वाब तक तू लफ़्ज़ लफ़्ज़ लज़्ज़त-ए-हिज्राँ में है अभी हम आ गए हैं हिजरत-ए-ग़म के निसाब तक जो ज़ेर-ए-मौज-ए-आब-ए-रवाँ है ख़ुरूज-ए-आब आ जाए एक रोज़ अगर सत्ह-ए-आब तक मिलता कहीं सवाद-ए-वरूद-ओ-शहूद में होता मिरी हुदूद का कोई हिसाब तक तेरा ही रक़्स सिलसिला-ए-अक्स-ए-ख़्वाब है इस अश्क-ए-नीम-शब से शब-ए-माहताब तक आसार-ए-अहद-ए-ग़म हैं तह-ए-रेग-ए-जाँ कि तू पहुँचा नहीं अभी दिल-ए-ख़ाना-ख़राब तक