गिरता रहा इक याद का मलबा मिरे आगे बिछता ही गया हिज्र में रस्ता मिरे आगे वो जिन को फ़ऊलुन के सिवा इल्म नहीं है करते हैं बहुत शोर-शराबा मिरे आगे मैं वहशत-ए-बातिन से उसे करता मुसख़्ख़र रक्खा ही नहीं क़ैस ने नक़्शा मिरे आगे इक उम्र सुख़न करते हुए गुज़री है लेकिन आया ही नहीं शेर अछूता मिरे आगे हर गाम मयस्सर रहे बस इज्ज़ की सीढ़ी कुछ मा'नी नहीं रखता है रुत्बा मिरे आगे मैं सर-ता-क़दम ओढ़ के रखता तुझे 'जामी' इक बार कभी तू जो महकता मिरे आगे