गो मुझे ज़ीस्त ने आराम से रहने न दिया अश्क आँखों से मगर एक भी बहने न दिया हम उलटते ही रहे रू-ए-मुनव्वर से नक़ाब शाम से ता-ब-सहर चाँद को गहने न दिया ताब-ए-नज़ारा-ए-माशूक़ कहाँ आशिक़ को तूर पर होश में मूसा को भी रहने न दिया कर दिया चुप बुत-ए-काफ़िर ने इशारा कर के दावर-ए-हश्र से कुछ भी मुझे कहने न दिया हर घड़ी हाथ में रक्खा है क़फ़स को 'जौहर' मुझ को तन्हा कभी सय्याद ने रहने न दिया