गुँध के मिट्टी जो कभी चाक पे आ जाती है बात बे-मेहरी-ए-अफ़्लाक पे आ जाती है आसमानों पे उड़ो ज़ेहन में रक्खो कि जो चीज़ ख़ाक से उठती है वो ख़ाक पे आ जाती है रंग-ओ-ख़ुशबू का कहीं कोई करे ज़िक्र तो बात घूम फिर कर तिरी पोशाक पे आ जाती है बिखरा बिखरा सा है अंदाज़-ए-तकल्लुम उन का और तोहमत मिरे इदराक पे आ जाती है नख़्ल महफ़ूज़ रहें बाद-ए-हवादिस जो चले एक आफ़त ख़स-ओ-ख़ाशाक पे आ जाती है छोड़ जाए जो कोई चाहने वाला 'फ़रताश' ज़िंदगानी रह-ए-सफ़्फ़ाक पे आ जाती है