गुज़र गई है मुझे रेग-ज़ार करती हुई वो एक मछली समुंदर शिकार करती हुई न जाने कितने भँवर को रुला के आए है ये मेरी कश्ती-ए-जाँ ख़ुद को पार करती हुई वो एक साअ'त-ए-मासूम दिल की पर्वर्दा मुकर गई है मगर ए'तिबार करती हुई जुनूँ की आख़िरी लर्ज़ीदा मुज़्महिल सी रात झपक गई है ज़रा इंतिज़ार करती हुई ये कैसी ख़्वाहिश-ए-ना-दीद है दोराहे पर सहम गई है अभी मुझ पे वार करती हुई लिपट के सो गई आख़िर शम-ए-फ़िराक़ के साथ शब-ए-सियाह सितारे शुमार करती हुई सफ़र में कैसी हरारत क़रीब थी 'ख़ुर्शीद' उतर गई है मुझे धार-दार करती हुई