गुज़र जान से और डर कुछ नहीं रह-ए-इश्क़ में फिर ख़तर कुछ नहीं है अब काम दिल जिस पे मौक़ूफ़ तो वो नाला कि जिस में असर कुछ नहीं हुआ माइल उस सर्व का दिल मिरा ब-जुज़ जौर जिस से समर कुछ नहीं न कर अपने महवों का हरगिज़ सुराग़ गए गुज़रे बस अब ख़बर कुछ नहीं तिरी हो चुकी ख़ुश्क मिज़्गाँ की सब लहू अब जिगर में मगर कुछ नहीं हया से नहीं पुश्त-ए-पा पर वो चश्म मिरा हाल मद्द-ए-नज़र कुछ नहीं करूँ क्यूँके इंकार इश्क़ आह में ये रोना भला क्या है गर कुछ नहीं कमर उस की रश्क रग-ए-जाँ है 'मीर' ग़रज़ इस से बारीक-तर कुछ नहीं