गुज़र रहा हूँ सियह अंधे फ़ासलों से मैं न अब हूँ रह से इबारत न मंज़िलों से मैं कहाँ कहाँ से अलग कर सकोगे तुम मुझ को जुड़ा हुआ हूँ यहाँ लाख सिलसिलों से मैं क़दम मिलाने में सब कर रहे थे क़ुव्वतें सर्फ़ मिला हूँ राह में कितने ही क़ाफ़िलों से मैं मैं उस के पाँव की ज़ंजीर देखता था बहुत कुछ आश्ना न था अपनी ही मुश्किलों से मैं अजीब लोग हैं कुछ कह दो मान लेते हैं हुआ हूँ ज़ेर बहुत ज़ूद क़ातिलों से मैं कहो तो साथ बहा ले चलूँ ये दुख भरे शहर गुज़र रहा हूँ अजब ख़स्ता साहिलों से मैं मैं क्यूँ बुराई सुनूँ दोस्तों की ऐ 'बानी' अलग नहीं उन्हीं खोटे खरे दिलों से मैं