गुज़रे हुए लम्हात को अब ढूँड रहा हूँ मैं अपने मुक़द्दर में ग़ज़ब ढूँड रहा हूँ सज्दे का सबब जान के शीरीं है परेशाँ फ़रहाद ने कह डाला के रब ढूँड रहा हूँ वो हैं कि निभाने भी लगे वस्ल के आदाब मैं हूँ कि तग़ाफ़ुल का सबब ढूँड रहा हूँ ज़ालिम मुझे फिर सैकड़ों ग़म देने लगा है मैं ज़िंदगी में एक ख़ुशी जब ढूँड रहा हूँ क्यूँ मुझ को सुख़नवर कहो पागल न कहो तुम हर बज़्म में जो बज़्म-ए-अदब ढूँड रहा हूँ आज़ुर्दा थी ग़ुर्बत में मिरे दोस्त की हिजरत कुछ मैं भी परेशाँ हूँ अरब ढूँड रहा हूँ बस एक पता ही तो मुझे याद है 'अज़हर' दीवाना है क्या तुझ को मैं कब ढूँड रहा हूँ