गुज़रे हुए वक़्तों का निशाँ था तो कहाँ था हम से जो निहाँ है वो अयाँ था तो कहाँ था इस तरह लिपटती है उदासी कि ये सोचें दो पल की ख़ुशी का जो गुमाँ था तो कहाँ था बस्ती का तक़ाज़ा है कहीं हैं तो कहाँ हैं मजनूँ का बयाबाँ में मकाँ था तो कहाँ था बैठा है मिरे पास कि चलना नहीं मुमकिन सोहबत की हदों का जो निशाँ था तो कहाँ था अब सोचते हैं बैठ के गुलशन की फ़ज़ा में सहरा में हमारा जो मकाँ था तो कहाँ था पीरी है बुज़ुर्गी है बुढ़ापा है कि क्या है इस कर्ब में रहना कि जवाँ था तो कहाँ था नश्शा ही नहीं सब का भरम टूट रहा था सुनते थे कोई पीर-ए-मुग़ाँ था तो कहाँ था 'आमिर' को हमीं ढूँड के लाएँ हैं ब-मुश्किल कहते हैं वो पहले से यहाँ था तो कहाँ था