गुज़रे जो अपने यारों की सोहबत में चार दिन ऐसा लगा बसर हुए जन्नत में चार दिन उम्र-ए-ख़िज़र की उस को तमन्ना कभी न हो इंसान जी सके जो मोहब्बत में चार दिन जब तक जिए निभाएँगे हम उन से दोस्ती अपने रहे जो दोस्त मुसीबत में चार दिन ऐ जान-ए-आरज़ू वो क़यामत से कम न थे काटे तिरे बग़ैर जो ग़ुर्बत में चार दिन फिर उम्र भर कभी न सुकूँ पा सका ये दिल कटने थे जो भी कट गए राहत में चार दिन जो फ़क़्र में सुरूर है शाही में वो कहाँ हम भी रहे हैं नश्शा-ए-दौलत में चार दिन उस आग ने जला के ये दिल राख कर दिया उठते थे 'जोश' शोले जो वहशत में चार दिन