गुज़रे लम्हात का एहसास हुआ जाता है दामन-ए-वक़्त यूँही मुझ से छटा जाता है मैं उजाले को मोहब्बत का ख़ुदा लिखता हूँ वो अँधेरे ही से मानूस हुआ जाता है जिस की ख़ुश्बू से फ़ज़ाओं में महक थी शब-भर सुब्ह-दम उस की तरफ़ साँप बढ़ा जाता है मुझ को डर है कोई आबिद न बहक जाए कहीं दिल-रुबा चाँद का अंदाज़ हुआ जाता है दूर रह कर भी रग-ए-जाँ से लिपट जाते हैं और इस दिल में उजाला सा हुआ जाता है इस क़दर ज़हर पिलाया मुझे उस ने 'आलम' तल्ख़ी-ए-ज़ीस्त का एहसास मिटा जाता है