गुज़िश्ता शब जो इतनी रौशनी थी तुम्हारी याद की जल्वागरी थी फ़ज़ा में गुनगुनाहट थी अजब सी हवा पत्तों से बातें कर रही थी ग़ज़ल जैसा सरापा था किसी का कोई सूरत मुकम्मल शाइ'री थी तिरे अल्फ़ाज़ निश्तर बन गए थे मोहब्बत इंतिहा पर आ गई थी सुना है बा'द मेरे कुछ दिनों तक वो मिट्टी पर लकीरें खींचती थी वो गाहे अब पलट कर देखती है कोई इक बात कहना रह गई थी वही हम हैं वही तीरा-शबी है मोहब्बत चार दिन की चाँदनी थी लबों पर क़हक़हे ही क़हक़हे थे कोई लड़की थी या वो फुलजड़ी थी कोई दिल में अचानक आ बसा था मोहब्बत की नहीं थी हो गई थी