गुल है ज़ख़्मी बहार के हाथों दिल है सद-चाक यार के हाथों दम-ब-दम क़त्अ होती जाती है उम्र लैल-ओ-नहार के हाथों जाँ-ब-लब हो रहा हूँ मिस्ल-ए-हबाब मैं तिरे इंतिज़ार के हाथों एक दम भी मिला न हम को क़रार इस दिल-ए-बे-क़रार के हाथों अपनी सर-गश्तगी कभी न गई गर्दिश-ए-रोज़गार के हाथों इक शगूफ़ा उठे है रोज़ नया इस दिल-ए-दाग़-दार के हाथों दिल पे क्या क्या हुए हैं नक़्श-ओ-निगार नावक-ए-दिल-फ़िगार के हाथों हो रहा है ख़राब ख़ाना-ए-दिल दीदा-ए-अश्क-बार के हाथों गर कभी लग गया तिरा दामन मेरी मुश्त-ए-ग़ुबार के हाथों छूटना है फिर उस का अम्र-ए-मुहाल इस तिरे ख़ाकसार के हाथों इक दिल ख़ार ख़ार हूँ मैं 'हसन' अपने उस गुल-एज़ार के हाथों