गुलाब माँगे है ने माहताब माँगे है शुऊर-ए-फ़न तो लहू की शराब माँगे है वो उस का लुत्फ़-ओ-करम मुझ ग़रीक़-ए-इस्याँ से गुनाह माँगे है और बे-हिसाब माँगे है हवस की बाढ़ हर इक बाँध तोड़ना चाहे नज़र का हुस्न मगर इंतिख़ाब माँगे है कहाँ हो खोए हुए लम्हो! लौट कर आओ हयात उम्र-ए-गुज़िश्ता का बाब माँगे है मिरे कलाम में ताऊस भी है शाहीं भी सिनाँ के साथ मिरा फ़न रुबाब माँगे है चढ़ा रहा है सलीबों पे हम को सदियों से ज़माना फिर भी मुक़द्दस किताब माँगे है न जाने कितनी घटाएँ उठी हैं राहों में मगर है प्यास कि हर दम सराब माँगे है है ज़ख़्म-ख़ुर्दा मिरे दिल का आइना ऐसा ख़िरद की तेग़ से थोड़ी सी आब माँगे है वो मेरी फ़हम का लेता है इम्तिहाँ शायद कि हर सवाल से पहले जवाब माँगे है बिखर गया था जो कल रात किर्चियों की तरह मिरी निगाह वो टूटा सा ख़्वाब माँगे है करामत उस से जो पूछूँ कि ज़िंदगी क्या है जवाब देने के बदले हुबाब माँगे है