गुलाब था न कँवल फिर बदन वो कैसा था कि जिस का लम्स बहारों में रंग भरता था जहाँ पे सादा-दिली के मकीं थे कुछ पैकर वो झोंपड़ा था मगर पुर-शिकोह कितना था मशाम-ए-जाँ से गुज़रती रही है ताज़ा हवा तिरा ख़याल खुले आसमान जैसा था उसी के हाथ में तम्ग़े हैं कल जो मैदाँ में हमारी छाँव में अपना बचाओ करता था ये सच है रंग बदलता था वो हर इक लम्हा मगर वही तो बहुत कामयाब चेहरा था हर इक नदी से कड़ी प्यास ले के वो गुज़रा ये और बात कि वो ख़ुद भी एक दरिया था वो एक जस्त में नज़रों से दूर था 'अम्बर' ख़ला में सिर्फ़ सुनहरा ग़ुबार फैला था