गुलज़ार में रफ़्तार-ए-सबा और ही कुछ है उस शोख़ के चलने की अदा और ही कुछ है करती है ख़ुनुक दिल की तपिश बाद-ए-सहर भी लेकिन तिरे दामन की हवा और ही कुछ है शायद वो शबाब आने से आगाह हुआ है पलकें हैं झुकीं रंग-ए-हया और ही कुछ है किस शोख़ ने ज़ुल्फ़ों को हवा में है उड़ाया ये तौबा-शिकन काली-घटा और ही कुछ है कहने को तो हर फ़र्द-ओ-बशर सब हैं बराबर दुनिया में मगर शोर बपा और ही कुछ है बेकस का लहू शो'ला न बन जाए सँभलना पैग़ाम सुनाती ये हवा और ही कुछ है वो लाख सितम ढाएँ कभी उफ़ न करूँगा आफ़त मिरा दस्तूर-ए-वफ़ा और ही कुछ है