गुल-ओ-बुलबुल बहार में देखा एक तुझ को हज़ार में देखा जल गया दिल सफ़ेद हैं आँखें ये तो कुछ इंतिज़ार में देखा जैसा मुज़्तर था ज़िंदगी में दिल वोहीं मैं ने क़रार में देखा आबले का भी होना दामन-गीर तेरे कूचे के ख़ार में देखा तीरा आलम हुआ ये रोज़-ए-सियाह अपने दिल के ग़ुबार में देखा ज़ब्ह कर मैं कहा था मरता हूँ दम नहीं मुझ शिकार में देखा जिन बलाओं को 'मीर' सुनते थे उन को इस रोज़गार में देखा