गुलों के चेहरा-ए-रंगीं पे वो निखार नहीं बहार आई मगर आलम-ए-बहार नहीं जो हाथ आता है दामन तो छोड़ देता हूँ जुनूँ-नवाज़ अभी मौसम-ए-बहार नहीं किसी की याद का आलम न पूछिए मुझ से कभी क़रार है दिल को कभी क़रार नहीं ये बाँकपन ये अदा ये शबाब का आलम तुम आ गए तो किसी का अब इंतिज़ार नहीं बहार पर भी ख़िज़ाँ ही का रंग ग़ालिब है हवा ज़माने की गुलशन को साज़गार नहीं हमारे सामने वो हैं कहीं ये ख़्वाब न हो अब अपनी आँखों पे भी हम को ए'तिबार नहीं ख़ुद आ गए हैं सिमट कर निगाह में जल्वे विसाल-ए-दोस्त है ये रंज-ए-इंतिज़ार नहीं मिरा मज़ाक़ उड़ाता है आईना लेकिन मिरी हक़ीक़त-ए-ग़म उस पे आश्कार नहीं हमारी आबला-पाई का फ़ैज़ क्या कहिए वो कौन सा है बयाबाँ जो लाला-ज़ार नहीं बुतों को पूज रहा है तिरे तसव्वुर में गुनाह कर के भी 'फ़ैज़ी' गुनाहगार नहीं