गुलों के दाम-ए-मोहब्बत में आ रहा हूँ मैं फ़रेब हुस्न-ए-मजाज़ी का खा रहा हूँ मैं किसी के हुस्न की तस्वीर खींच कर दिल में तसव्वुरात की महफ़िल सजा रहा हूँ मैं मुझे तलब ही नहीं है किसी मसर्रत की ख़ुशी समझ के तिरा ग़म उठा रहा हूँ मैं गुलों की बज़्म से मुझ को न थी कोई रग़बत तुम्हारा नक़्श-ए-क़दम ढूँढता रहा हूँ मैं सफ़ीना ग़म का लिए जाएगा कहाँ यारब मुहीत-ए-ज़ीस्त में बहता ही जा रहा हूँ मैं बक़ा की फ़िक्र न अंदेशा-ए-फ़ना 'हमदम' ख़ुदा के जल्वे में ख़ुद को समा रहा हूँ मैं