गुलों से इश्क़ गुलिस्ताँ से प्यार करते रहे भरी ख़िज़ाँ में भी ज़िक्र-ए-बहार करते रहे हमारी बे-ख़ुदी-ए-शौक़ की न पूछो कि हम तिरे क़रीब तिरा इंतिज़ार करते रहे किसी के दस्त-ए-हिनाई का आसरा ले कर हिफ़ाज़त-ए-ग़म-ए-लैल-ओ-नहार करते रहे ज़माना यूँ भी कभी अपने साथ चल न सका मगर ज़माने का हम ए'तिबार करते रहे तुम्हारी याद से वाबस्ता तल्ख़ियाँ ही रहीं तुम्हारा ज़िक्र मगर बार बार करते रहे बड़े सलीक़े से पहुँचे हैं आज मंज़िल पर जो तेरी राहगुज़र इख़्तियार करते रहे ग़ज़ल की आड़ में 'हसरत' ग़ज़ल के सौदाई ख़ुद अपने दाग़-ए-जिगर आश्कार करते रहे