गुलशन में फूल खिलते ही सद-चाक हो गए रंगीन हादसे थे अलमनाक हो गए दौर-ए-सुबू-ओ-जाम चला मय-कदे में जब हम बे-नियाज़-ए-गर्दिश-ए-अफ़्लाक हो गए देखा जो मेरा हाल-ए-ज़बूँ शाम-ए-इंतिज़ार अपने तो अपने ग़ैर भी नमनाक हो गए साक़ी ये तेरा फ़ैज़-ए-करम है कि मय-गुसार बेबाक थे ही और भी बेबाक हो गए बाद-ए-सबा को ज़िद है कि क्यूँ ख़ाक भी रहे मर कर जो कू-ए-यार में हम ख़ाक हो गए ये इंक़िलाब-ए-वक़्त का ए'जाज़ देखिए अहल-ए-जुनूँ भी साहब-ए-इदराक हो गए अच्छा हुआ जो 'मुस्लिम'-ए-दीवाना चल बसा क़िस्से तो दार-ओ-गीर के अब पाक हो गए