गुर बुत-ए-कम-सिन दाम बिछाए बुलबुलें क्या हैं हाथी फँसाए उन से निगाहें कौन मिलाए तेवरी चढ़ी है मुँह हैं फुलाए मसनद-ए-ज़र पे बैठा है वाइज़ खींसें निकाले चंदिया घटाए उस से वो मिलते रहते हैं अक्सर रोज़ उन्हें जो चाय पिलाए महव-ए-ख़िराम-ए-नाज़ है कोई ज़ुल्फ़ों में कड़वा तेल लगाए रात को अक्सर शैख़-ए-हरम भी मय-कदे पहुँचे मुँह को छुपाए गर्दिश-ए-क़िस्मत गर्दिश-ए-दौराँ जिस को चाहे ख़ूब नचाए जिस को भी चाहे दोस्त नवाज़े जिस को न चाहे ठेंगा दिखाए लेता है दस्त-ए-नाज़ के बोसे हम से अच्छा लाईफ़-ब्वॉय रोक निगाह-ए-हिर्स को माली तेरे चमन को चरने न पाए