गुज़रे लम्हों के दोबारा पन्ने खोल रही हूँ मैं थोड़े क़िस्से याद हैं मुझ को थोड़े भूल गई हूँ मैं रोज़ सुब्ह उठ जाया करते हैं मुझ में किरदार कई पर बिस्तर से ख़ुद को तन्हा उठते देख रही हूँ मैं सोचा है मैं दर्द छुपा लूँगी अपने आसानी से सीने में जासूस छुपा है ये क्यूँ भूल रही हूँ मैं एक सबब ये भी हँसते हँसते चुप हो जाने का अपने ऊपर ज़िम्मेदारी ज़्यादा ओढ़ चुकी हूँ मैं इसी लिए बे-सब्र हूँ उस के मन की बातें सुनने को अपने मन की सारी बातें उस से बोल चुकी हूँ मैं