हाँ कभी रूह को नख़चीर नहीं कर सकता तुझ ज़बाँ ने जो किया तीर नहीं कर सकता चाँद होता तो ये मुमकिन था मगर चाँद नहीं सो मैं उस शख़्स को तस्ख़ीर नहीं कर सकता मैं कहाँ और ये आयात-ए-ख़द-ओ-ख़ाल कहाँ मुसहफ़-ए-हुस्न मैं तफ़्सीर नहीं कर सकता आँख ने देखा सर-ए-शाम वो मंज़र 'फ़रताश' करना चाहूँ भी तो तस्वीर नहीं कर सकता