हाल-ए-दिल कहने की सई-ए-राइगाँ में रह गए उलझे कुछ अल्फ़ाज़ में हम कुछ बयाँ में रह गए ख़ौफ़-ओ-ग़ुस्से के सिवा खाने को क्या हम को मिला रहने को मेहमाँ तिरे दिलकश जहाँ में रह गए शाहनामे और सिकंदर-नामे तक दुनिया गई मुब्तदी थे हम गुलिस्ताँ-बोस्ताँ में रह गए ज़िंदगी की इब्तिदा इश्क़-ए-बुताँ से हम ने की बढ़ सके आगे न कुछ इश्क़-ए-बुताँ में रह गए ये न सोचा रंज देने में हैं दोनों एक से इम्तियाज़-ए-दोस्तान-ओ-दुश्मनाँ में रह गए