हाल खुलता नहीं जबीनों से रंज उठाए हैं जिन क़रीनों से रात आहिस्ता-गाम उतरी है दर्द के माहताब ज़ीनों से हम ने सोचा न उस ने जाना है दिल भी होते हैं आबगीनों से कौन लेगा शरार-ए-जाँ का हिसाब दस्त-ए-इमरोज़ के दफ़ीनों से तू ने मिज़्गाँ उठा के देखा भी शहर ख़ाली न था मकीनों से आश्ना आश्ना पयाम आए अजनबी अजनबी ज़मीनों से जी को आराम आ गया है 'अदा' कभी तूफ़ाँ कभी सफ़ीनों से