हालात अब सँवरने के आसार भी नहीं ग़म बे-शुमार हैं कोई ग़म-ख़्वार भी नहीं क्या क्या लिखूँ मैं शहर-ए-सितम की रिवायतें इक दूसरे का कोई मदद-गार भी नहीं कश्ती का मेरी यारो निगहबाँ है कोई और हाथों में मेरे इस लिए पतवार भी नहीं किस के क़दम को चूमूँ किसे पारसा कहूँ हर शख़्स अब तो साहिब-ए-किरदार भी नहीं ऐ शैख़ तेरी बात अजीब-ओ-ग़रीब है भीगे हैं होंट और गुनाहगार भी नहीं मैं कैसे मान लूँ वो मसीहा-ए-वक़्त है किरदार उस का लाएक़-ए-दस्तार भी नहीं उस के लिए दुआएँ न माँगी कहाँ कहाँ लेकिन 'क़मर' वो मेरा तलबगार भी नहीं