हाथ फैला न सके भीक के प्यालों की तरह हम से माँगा न गया माँगने वालों की तरह कर न गुलशन में उछल-कूद ग़ज़ालों की तरह चल बहुत सोच के शतरंज की चालों की तरह फ़ाक़ा-मस्तों पे इनायात निवालों की तरह हर निवाले में मगर तंज़ भी बालों की तरह हम रह-ए-ज़ीस्त से गुज़रे हैं उजालों की तरह याद रक्खेंगे हमें लोग मिसालों की तरह कोई उठता ही नहीं शहर में क़ातिल के ख़िलाफ़ हक़-नवाओं के भी मुँह बंद थे तालों की तरह हम में तहज़ीब-ओ-तमद्दुन भी अदब भी फ़न भी कल पढ़े जाएँगे हम लोग मक़ालों की तरह तुझ से जो कोई मिला ख़ूँ में नहा कर लौटा लहजा बर्छी तिरा अल्फ़ाज़ हैं भालों की तरह अहल-ए-ज़र्फ़ आपे से बाहर नहीं होते 'आरिफ़' हम समुंदर थे न बिफरे नदी नालों की तरह