दयार-ए-'दाग़'-ओ-'बेख़ुद' शहर-ए-देहली छोड़ कर तुझ को न था मा'लूम यूँ रोएगा दिल शाम-ओ-सहर तुझ को कहाँ मिलते हैं दुनिया को कहाँ मिलते हैं दुनिया में हुए थे जो अता अहल-ए-सुख़न अहल-ए-नज़र तुझ को तुझे मरकज़ कहा जाता था दुनिया की निगाहों का मोहब्बत की नज़र से देखते थे सब नगर तुझ को ब-क़ौल-ए-'मीर' औराक़-ए-मुसव्वर थे तिरे कूचे मगर हाए ज़माने की लगी कैसी नज़र तुझ को न भूलेगा हमारी दास्ताँ तू भी क़यामत तक दिलाएँगे हमारी याद तेरे रहगुज़र तुझ को जो तेरे ग़म में बहता है वो आँसू रश्क-ए-गौहर है समझते हैं मता-ए-दीदा-ओ-दिल दीदा-वर तुझ को मैं 'जालिब'-देहलवी कहला नहीं सकता ज़माने में मगर समझा है मैं ने आज तक अपना ही घर तुझ को