इक शख़्स बा-ज़मीर मिरा यार 'मुसहफ़ी' मेरी तरह वफ़ा का परस्तार 'मुसहफ़ी' रहता था कज-कुलाह अमीरों के दरमियाँ यकसर लिए हुए मिरा किरदार 'मुसहफ़ी' देते हैं दाद ग़ैर को कब अहल-ए-लखनऊ कब दाद का था उन से तलबगार 'मुसहफ़ी' ना-क़द्री-ए-जहाँ से कई बार आ के तंग इक उम्र शे'र से रहा बेज़ार 'मुसहफ़ी' दरबार में था बार कहाँ उस ग़रीब को बरसों मिसाल-ए-'मीर' फिरा ख़्वार 'मुसहफ़ी' मैं ने भी उस गली में गुज़ारी है रो के उम्र मिलता है उस गली में किसे प्यार 'मुसहफ़ी'