'ग़ालिब'-ओ-'यगाना' से लोग भी थे जब तन्हा हम से तय न होगी क्या मंज़िल-ए-अदब तन्हा फ़िक्र-ए-अंजुमन किस को कैसी अंजुमन प्यारे अपना अपना ग़म सब का सोचिए तो सब तन्हा सुन रखो ज़माने की कल ज़बान पर होगी हम जो बात करते हैं आज ज़ेर-ए-लब तन्हा अपनी रहनुमाई में की है ज़िंदगी हम ने साथ कौन था पहले हो गए जो अब तन्हा मेहर-ओ-माह की सूरत मुस्कुरा के गुज़रे हैं ख़ाक-दान-ए-तीरा से हम भी रोज़-ओ-शब तन्हा कितने लोग आ बैठे पास मेहरबाँ हो कर हम ने ख़ुद को पाया है थोड़ी देर जब तन्हा याद भी है साथ उन की और ग़म-ए-ज़माना भी ज़िंदगी में ऐ 'जालिब' हम हुए हैं कब तन्हा