हदफ़ को तीर-ओ-सिनाँ से निकाल देते हैं सितम की रस्म जहाँ से निकाल देते हैं वो आँख ज़ख़्म को अब मुंदमिल नहीं करती हम उस को चारा-गराँ से निकाल देते हैं जो वा'दे तुम से वफ़ा हो नहीं सके उन को तुम्हारे लफ़्ज़-ओ-बयाँ से निकाल देते हैं उड़ान भर के परिंदे पलट के आते नहीं उन्हें पयाम्बराँ से निकाल देते हैं यक़ीं की हद से जो आगे निकल गए हैं वो ख़्वाब हम अपनी चश्म-ए-गुमाँ से निकाल देते हैं जो लोग डूब के दरिया को पार कर न सकें उन्हें हम आब-ए-रवाँ से निकाल देते हैं