है अब की फ़स्ल में रंग बहार और ही कुछ हुआ है नक़्शा-ए-शहर-ओ-दयार और ही कुछ न शहसवार न गज़नी न कारवाँ कोई उफ़ुक़ के पार उठा था ग़ुबार और ही कुछ शगूफ़े आज भी खुलते हैं कल भी खुलते थे है इस चमन की ख़िज़ाँ और बहार और ही कुछ हमारे वास्ते हमदम क़रार-ए-दिल मत ढूँढ कि पा गया है दिलों में क़रार और ही कुछ न शाख़ का न समर का न आशियाँ का मलाल कि मैं ने तुझ पे किया था निसार और ही कुछ सुना है तंगी-ए-कुंज-ए-लहद का भी अहवाल है आज अर्ज़-ओ-समा का फ़िशार और ही कुछ नवा-ए-दिल में वो आहंग दिल-कुशा न रहा सुख़न ने रंग किया इख़्तियार और ही कुछ