है अभी तक इसी वहशत की इनायत बाक़ी कोई भी चीज़ नहीं घर की सलामत बाक़ी मैं भला हाथ दुआओं को उठाता कैसे उस ने छोड़ी ही नहीं कोई ज़रूरत बाक़ी उस ने टूटे हुए टुकड़ों से भी पहचान लिया है बिखर कर भी मियाँ मेरी नफ़ासत बाक़ी बे-निशाँ कोई न उजड़े हुए खंडरात रहें उन में रहती है अभी घर की शबाहत बाक़ी पहले जज़्बात छलक पड़ते थे ख़ामोशी से अब तो लहजों में भी है ख़ाली मुरव्वत बाक़ी ख़ुद को आदत कोई पड़ने ही नहीं देता हूँ मेरी अब तक है हमेशा की ये आदत बाक़ी मेरे छूने से कली फूल बनी जाती है मेरे हाथों में अभी तक है शरारत बाक़ी मैं नज़र आऊँ तो दिखता नहीं सूरज 'अख़्तर' एक ही रह गई छोटी सी करामत बाक़ी