है दुआ होंटों पे और हैं ख़्वाहिशें हाथों के बीच काम दुनिया के निकलते हैं मुनाजातों के बीच सर्द नींदों की मुसलसल गिर रही हैं पत्तियाँ कुछ सफ़ेद और कुछ सियह से ख़्वाब हैं रातों के बीच लम्हा लम्हा पड़ती रहती है दिलों में इक गिरह तेवरी इक चल रही है रात दिन माथों के बीच देखती है ग़ौर से हर शय को वो बीमार आँख एक गहरा ज़र्द अश्क है उस की सब बातों के बीच जब से निकले हैं दिलों के काम में घाटे बहुत हम हिसाब-ए-दोस्ताँ लिखते हैं अब खातों के बीच अब तो उठता जा रहा है मौसमों से ए'तिबार दिल किसी सहरा में है और जिस्म बरसातों के बीच मुझ को 'शाहीं' दुख बहुत देती है उस की ये अदा जैसे वो होता नहीं मिल कर मुलाक़ातों के बीच