है जुर्म मोहब्बत तो सज़ा क्यूँ नहीं देते यारो हमें इक रोज़ मिटा क्यूँ नहीं देते हम राह में दीवार की मानिंद खड़े हैं दीवार को ठोकर से गिरा क्यूँ नहीं देते मयख़ाने के आदाब से वाक़िफ़ जो नहीं हम महफ़िल से हमें अपनी उठा क्यूँ नहीं देते जब हम ने लगाया था गले से तुम्हें अपने उस दौर की तारीख़ भुला क्यूँ नहीं देते मशहूर-ए-ज़माना जो है सच्चाई हमारी फिर तुम हमें सूली पे चढ़ा क्यूँ नहीं देते ऐ राहबरो काबा-ओ-काशी को मिला कर मयख़ाने की इक राह बना क्यूँ नहीं देते जिन लोगों को दा'वा है मसीहाई का 'साजिद' वो लोग हमें ज़हर पिला क्यूँ नहीं देते