है कहे देते हैं ज़हमत-ख़ुर्दा है दिल तो हाज़िर है मगर पज़मुर्दा है तू ही आता है न आती है क़ज़ा देखते हैं जिस को वो आज़ुर्दा है जिस तरह जी चाहे रखें मेरा दिल जानते हैं वो कि माल मुर्दा है मंज़िल-ए-उल्फ़त में रक्खें तो क़दम रुस्तम-ओ-सुहराब का क्या गुर्दा है कौन सुनता है तुम्हारी ऐ 'नसीम' किस को पास-ए-ख़ातिर-ए-अफ़्सुर्दा है