है क़िस्सा मुख़्तसर मेरे सफ़र का न पानी है न साया है शजर का नहीं है जिस पे तेरा नक़्श-ए-पा तक भरोसा क्या है ऐसी ज़िंदगी का चला हूँ जानिब-ए-मंज़िल में लेकिन नहीं नाम-ओ-निशाँ तक रहगुज़र का ख़याल-ए-यार में गुम हो गया हूँ पता मैं किस से पूछूँ अपने घर का नहीं सहबा की अज़्मत से मैं मुनकिर ये नशा है मगर है रात भर का ज़माने भर में रुस्वा हो गया हूँ करिश्मा है ये बस तेरी नज़र का 'प्रेमी' जब भी जल्वा-गर वो होगा बदल जाएगा मंज़र बाम-ओ-दर का