है क्या ख़िज़ाँ में मुमकिन सहरा में बाग़ निकले ज़ुल्मत को जो मिटाए ऐसा चराग़ निकले शोर-ए-सफ़ीर-ए-बुलबुल से गूँजता था कल तक क्यूँ आज मेरे घर में रोने को ज़ाग़ निकले दाग़-ए-क़मर से आख़िर जब आश्ना हुआ मैं जितने रक़ीब पाए इन में न दाग़ निकले डरता था मैं न आए वक़्त-ए-फ़िराक़ मुझ पर कुछ वस्ल से तिरे अब हौल-ए-दिमाग़ निकले हो जुस्तुजू में जिस की है वो मज़ार कैसा क्या अपनी क़ब्र का तुम लेने सुराग़ निकले मैं थक चुका हूँ 'नाक़िद' तर्ग़ीब-ए-ज़िंदगी से चाहूँ उफ़ुक़ से आख़िर रोज़-ए-फ़राग़ निकले