है मुफ़्त दिल की क़ीमत अगर इक नज़र मिले ये वो मताअ' है कि न लें मुफ़्त अगर मिले इंसाफ़ कर कि लाऊँ मैं फिर कौन सा वो दिन महशर के रोज़ भी न जो दाद-ए-जिगर मिले परवाना-वार है हद-ए-पर्वाज़ शो'ला तक जलने ही के लिए मुझे ये बाल-ओ-पर मिले आने से ख़त के जाते रहे वो बिगाड़ सब बन आई अब तो हज़रत-ए-दिल लो ख़िज़्र मिले क्या शुक्र का मक़ाम है मरने की जाहे दिल कुछ मुज़्तरिब से आज वो बैरून-ए-दर मिले आलम ख़राब है न निकलने से आप के निकलो तो देखो ख़ाक में क्या घर के घर मिले है शाम-ए-हिज्र आज ओ ज़ालिम ओ फ़लक गर्दिश वो कर कि शाम से आ कर सहर मिले गो पास हो प चैन तो है इस बिगाड़ में क्या लुत्फ़ था लड़े वो इधर और उधर मिले दिल ने मिला दीं ख़ाक में सब वज़्अ-दारियां जूँ जूँ रुके वो मिलने से हम बेशतर मिले टूटे ये बख़िया ज़ख़्म का हमदम कहीं से ला ख़ंजर मिले कटार मिले नेश्तर मिले था अस्ल मैं मुराद डुबोना जहान का क़ाबिल समझ के गोया हमें चश्म-ए-तर मिले उस की गली में ले गए 'आज़ुर्दा' को इसे दी थी दुआ ये किस ने कि जन्नत में घर मिले