है मुझ को रब्त बस-कि ग़ज़ालान-ए-रम के साथ चौकूँ हूँ देख साए को अपने क़दम के साथ है ज़ात-ए-हक़ जवाहिर ओ अग़राज़ से बरी तश्बीह क्या है उस को वजूद ओ अदम के साथ क्या ऐन ओ मुल्क ओ वज़्अ ओ इज़ाफ़त का दख़्ल वाँ है इंफ़िआल ओ फ़ेल मता कैफ़-ओ-कम के साथ देखा मैं साथ ढोल के सूली पर उन का सर फ़ख़्रिय्या वो जो फिरते थे तब्ल-ओ-अलम के साथ देखी ये चाह उन की अंधेरे कुएँ के बीच फेंका लपेट कुश्ते को अपने गुलम के साथ कू-ए-बुताँ से तौफ़-ए-हरम को चले तो हम लेकिन कमाल-ए-हसरत ओ हिरमान ओ ग़म के साथ थीं अपनी आँखें हल्क़ा-ए-ज़ंजीर की नमत पैवस्ता हिल रही दर-ए-बैतुस-सनम के साथ कहते हो वूँ से होके इधर आओ वूँ चलें क्या ख़ूब क्यूँ न दौड़ पड़ूँ ऐसे दम के साथ तुम और बात मानो अजी सब नज़र में है दाँतों तले ज़बान दबानी क़सम के साथ अब छेड़ छाड़ की ग़ज़ल 'इंशा' इक और लिख हैं लाख शोख़ियाँ तिरी नोक-ए-क़लम के साथ