है वज्ह-ए-तमाशा-ए-जहाँ दिल-शिकनी भी मंज़ूर है ऐ दोस्त! ये नेज़े की अनी भी शादाब दरख़्तों के भी साए हैं गुरेज़ाँ इक जुर्म हुई मेरी ग़रीब-उल-वतनी भी पीते ही रहे गर्दिश-ए-अय्याम के हाथों सहबा-ए-मलामत भी ग़म-ए-तअना-ज़नी भी सोचा था कि उस बज़्म में ख़ामोश रहेंगे मौज़ू-ए-सुख़न बन के रही कम-सुख़नी भी ऐ सिलसिला-ए-निकहत-ए-गेसू के असीरो! है इश्क़ में इक मरहला-ए-कोह-कनी भी वीरान जज़ीरों की तरह ख़ुश्क हैं आँखें बेकार है ऐ दर्द तिरी नाला-ज़नी भी ऐ नाज़िश-ए-सद-रंग न कर उन से तग़ाफ़ुल है ख़ाक-नशीनों से तिरी गुल-बदनी भी